जो होता है, अच्छे के लिए होता है
बात प्राचीन काल की है । एक गांव में एक साहूकार रहता था । उस गांव की लगभग सारी कृषि भूमि इसी साहूकार के स्वामित्व में ही थी और वो गांव का सबसे अमीर व्यक्ति था । अपनी कृषि भूमि पर खेती करवाने के लिए वो मज़दूरों व किसानो को दिहाड़ी मज़दूरी पर काम करवाता था । खेतों से जो फसल आती थी उसको वो बाजार में अच्छे दामों पर बेच दिया करता था । ऐसा करने से उसने अपने पास अच्छी पूंजी एकत्र कर ली थी और दिन-प्रतिदिन उसकी धन-दौलत बढ़ती जा रही थी और वो दिन-प्रतिदन समृद्धिशाली होता जा रहा था । परन्तु, जैसा कि कहा जाता है कि किसी व्यक्ति का धन-दौलत और एैश्वर्य अकेला नही बढ़ता। इसके साथ बढ़ता है व्यक्ति का घमण्ड, अहंकार और लालच । ठीक ऐसा उस साहूकार के साथ भी हुआ ।
साहूकार के दिमाग में एक आईडिया हमेशा घूमता रहता था कि मेरी धन-दौलत और समृद्धि और अधिक कैसे बढ़ सकती है ? उसने महसूस किया कि गांव की सारी कृषि भूमि मेरी है। जिन मज़दूरों, किसानों को मैं भाड़े पर काम के लिए रखता हूं, वो भी पूरी मेहनत, ईमानदारी और वफ़ादारी से खेतों में काम करते हैं । मेरे समा्रज्य की वृद्धि में सिर्फ एक ही रूकावट आडे आ रही है जो है- प्रकृति का अपूर्वानुमानित चक्र। ये रूकावट मुझे व मेरे सम्राज्य को आगे बढ़ने से रोक रही है। प्रकृति के चक्र का अपूर्वानुमानित व अनिश्चित होना मेरे रास्ते की सबसे बड़ी रूकावट है। सूरज की तेज धूप, आंधी-तूफान, तेज बारिश व ओलावृष्टि हर बार मेरी फसल का एक बड़ा भाग नष्ट कर देती है जिसकी वजह से मुझे हर बार भारी हानि झेलनी पड़ती है।
वो मन नही मन सोचने लगा कि काश किसी भी प्रकार से मैं कैसे भी प्राकृतिक चक्र को नियन्त्रण में कर लूं तो मैं अपनी फसल का एक बड़ा भाग हर बार खराब होने से बचा सकता हूं। जिससे मैं इस गांव का और भी अधिक धनवान, वैभवशाली व रसूकदार व्यक्ति बन सकता हंू। अचानक उसके दिमाग में एक विचार आया कि क्यो न मैं भगवान को प्रसन्न कर लूं और उनके आशीर्वाद से प्रकृति चक्र को नियन्त्रण में ले लूं। अपनी इच्छा को मन में रखकर वह साहूकार एक पेड़ के नीचे भगवान को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने बैठ गया। साहूकार एक पेड़ के नीचे लगातार लम्बे समय तक तपस्यामग्न होकर बैठा रहा । अन्त में भगवान उसकी तपस्या और त्याग से प्रसन्न हुए और वहां प्रकट हुए ।
भगवानः आंखंे खोलो वत्स्! तुम इतना कठिन तप क्यो कर रहे हो ? क्या चाहते हो ?
साहूकारः हाथ जोड़कर, प्रभु जी! आप सर्वशक्तिमान व सर्वविद्यमान है और आपसे कुछ छुपा भी छुपा हुआ नही है। आप मेरी परेशानी को भी भली भांति जानते हैं । ऐसा कहते साहूकार की आंखों में आंसू आ गये ।
भगवानः निःसन्देह वत्स्, मुझे सब पता है लेकिन फिर भी मैं तुम्हारे मुंह से तुम्हारी परेशानी को सुनना चाहता हूं ।
साहूकारः प्रभु जैसा कि आपको पता है कि किसान दिन-रात खेतों में मेहनत करते हैं । अपना खून और पसीना एक करके वो खेतो में फसल उगाते हैं। लेकिन प्रकृति का अपूर्वानुमानित व अनिश्चित चक्र उनके खून-पसीने पर पानी फेर देता है। प्रकृति के चक्र की कठोरता हमारी फसल का एक बड़ा भाग नष्ट कर देती है। सूरज की तेज धूप, आंधी-तूफान, तेज बारिश व ओलावृष्टि हर बार हमारी फसल के एक बड़े भाग को तबाह कर देती है। इन प्राकृतिक आपदाओं की वज़ह से हमें हर साल भारी नुकसान उठाना पड़ता है। साहूकार ने ये सब एक शिकायत भरे अंदाज़ में कहा और विनती की- हे प्रभु! आप प्रकृति के इस चक्र की अनिश्चितता व कठोरता को कम कर दें। जिससे कि प्राकृतिक आपदाओं की वज़ह से हमारी फसल को नुकसान बिल्कुल न हो ।
भगवानः वत्स्! सीधा-सीधा बताओ, चाहते क्या हो ?
साहूकारः मैं नही चाहता कि सूरज की तेज धूप, आंधी-तूफान, तेज बारिश व ओलावृष्टि प्रकृति के चक्र का हिस्सा हों । प्रकृति को इतना कोमल और करूण होना चाहिये कि ये किसी भी प्रकार से हमारी फसल को नुकसान न पहुंचा सके ।
भगवान एवमस्तु! कहकर प्रभु वहा से अदृश्य हो गये । प्रभु से अपनी इच्छा को पूरा कराकर साहूकार बहुत खुश हुआ क्योंकि उसको लग रहा था कि अब उसको अपनी फसल का पूरा फल प्राप्त होगा । किसी भी तरह की कोई भी प्राकृतिक आपदा, जैसेः सूरज की तेज धूप, आंधी-तूफान, तेज बारिश व ओलावृष्टि उसकी फसल को नुकसान नही पहुंचा सकेगी क्योंकि अब प्रकृति का चक्र उसकी इच्छानुसार चलेगा। साहूकार खुशी-खुशी घर वापस आया और चैन की नींद सो गया।
कुछ माह बाद जैसे ही गेंहू की फसल का मौसम आया उसने अपने खेत जुतवा कर बुवाई के लिए तैयार करा लिये और जल्द ही उन तैयार खेतों में बीज बुवाई का कार्य भी करवा दिया । बीच-बीच में खेतों की देखरेख व जरूरत के अनुसार सिंचाई का काम भी साहूकार बखूबी करवाता रहा। कुछ समय बाद धरती में बोये हुए बीज अंकुरित होकर धरती से छोटे-छोटे पौधों के रूप में बाहर निकल आये। अपनी बोयी हुई फसल के अंकुर फूटते देख साहूकार बहुत खुश हुआ। उसकी खुशी इसलिए भी ज़्यादा थी क्योंकि उसको पता था कि इस बार प्रकृति की तरफ से कोई विध्न या बांधा भी होने वाली नही है। अंकुरित पौधे धीरे-धीरे बढ़ते चले गये और कुछ ही समय में हरी-भरी फसल खेतों में लहराने लगी। व़क्त आने पर फसल में गेंहू के दाने भी आ गये। ये सब देखकर साहूकार की खुशी का कोई ठिकाना न था। क्योंकि इस बार सब कुछ उसकी इच्छानुसार हो रहा था। इस बार उसकी फसल को किसी भी प्रकार का कोई भी नुकसान नही हुआ क्योंकि इस बार प्रकृति में ज़्यादा कोई बड़ा परिवर्तन ही नही हुआ। मौसम और तापमान लगभग एक जैसा ही रहा। साथ ही कोई प्राकृतिक आपदा भी नही हुई। कुछ समय बाद फसल की कटाई का व़क्त आ गया और जल्द ही खेतों में कटाई होने लगी।
साहूकार कटाई प्रक्रिया देखने खेतो में पहुंचा। साहूकार के मन में यही बात चल रही थी कि इस बार पूरी फसल की कीमत हाथ में आयेगी। ऐसा मन में विचार करते करते उसने कटी हुई फसल से कुछ गेंहू के दाने उठाकर हाथ में लिये। अरे ये क्या ? साहूकार को एकदम से झटका सा लगा। फसल तो पूरी तरह से खिली ही नही थी । गेंहू के दाने एकदम से सूखे थें। गेंहू मे किसी प्रकार की चमक भी नही थी। साहूकार ने हाथ में रखे दानों का स्वाद चखने के लिए मुंह में डाले तो पाया कि गेंहू में किसी प्रकार का कोई स्वाद भी नही था बल्कि सूखापन व फीकापन था। उसने एक-एक करके अपने हर खेत की फसल का निरीक्षण किया। हर खेत की फसल का हाल लगभग एक जैसा ही था। साहूकार के चेहरे पर अब शिकन स्पष्ट दिखाई दे रही थी। ऐसा लग रहा था कि मानो कोई जहरीला सॉंप पास से होकर गुजरा गया हो।
अपनी फसल की कीमत जानने के लिए साहूकार फसल का सैपल लेकर तुरन्त शहर की तरफ भागा और गेंहू मण्डी पहुंच गया। उसने वहां कई व्यापारियों को अपनी फसल का सैंपल दिखाया परन्तु किसी भी व्यापारी ने उसकी फसल में दिलचस्पी नही दिखाई। वो एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी दुकान पर भटकता रहा परन्तु सभी व्यापारियों का रवैया लगभग एक जैसा ही पाया। फिर वो अपने कुछ जानकार दुकानदारों के पास गया और उनसे विनम्र निवेदन किया कि कृपया आप मेरी फसल को किसी भी दाम पर ले लो, वरना सारी की सारी फसल खेतों में पड़ी-पड़ी नष्ट हो जायेगी। ऐसा कहते-कहते साहूकार की आंखों में आंसू आ गये। बड़ी मुश्किल से एक या दो उसके जानकार व्यापारी फसल लेने पर राज़ी हुए परन्तु बहुत ही कम दामों पर। क्योंकि फसल बहुत ही निम्न क्वालिटी की थी । जब साहूकार को उसकी कुल फसल से प्राप्त होने वाली धनराशि का पता चला तो उसको चक्कर आ गये। इस वर्ष फसल की बिकवाली में पिछले सालों के मुकाबले में बहुत भारी आर्थिक घाटा था। ये सब जान कर साहूकार बहुत परेशान हुआ। लेकिन अब वो कर भी क्या सकता था । उसके पास कोई विकल्प शेष नही था। अब मन ही मन वो भगवान को कोसने लगा ।
वो कहने लगा- हे भगवान! मैंने तो आपसे मांगे थे फूल। परन्तु आपने तो मेरे सीने में चुभो दिये शूल। वाह प्रभु वाह! बहुत खूब किया आपने। अपने आप को चारो ओर से परेशानी से घिरा हुआ व पूरी तरह से टूटा हुआ पाकर उसको कुछ समझ नही आ रहा था। अचानक से उसके मस्तिष्क में एक आशा की किरण आई। ये आशा की किरण एक बार फिर से भगवान जी ही थे। उसने भगवान को मन ही मन याद करना प्रारम्भ कर दिया । इस बार उसकी ईश्वर को याद करने की तीव्रता बहुत ही हाई थी । यद्यपि उसका दिल टूटा हुआ था परन्तु पवित्र था । इस टूटे हुए दिल के इंसान को ओर ज़्यादा न अज़माते हुए ईश्वर पुनः उसके समक्ष प्रकट हुए और बोले- क्या हुआ वत्स्? बहुत परेशान लग रहे हो । अब तो सब तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही हुआ है। अब तो प्रकृति की तरफ से किसी भी प्रकार की कोई भी बांधा व विध्न नही था। अब तो तुम्हारी फसल का एक भी पौधा या कहे कि एक भी दाना प्रकृति के चक्र, जिसको कि तुम प्राकृतिक आपदा कहते हैं, की वज़ह से नष्ट नही हुआ। अब जबकि सब कुछ तुम्हारी इच्छानुसार हो रहा है, तुमको तो खुश होना चाहिये, परन्तु तुम अब भी उदास लग रहे हैं, आखिर क्यू ?
साहूकारः हाथ जोड़ते हुए, प्रभु! सर्वप्रथम, मैं अपनी भूल के लिए दिल से आपसे क्षमा प्रार्थी हूं । अहंकार, लालच व स्वार्थ ने मुझे अंधा कर दिया था । ईश्वर की सर्वव्यापी सोच हमारी छोटी व सीमित सोच से सदैव अच्छी होती है । मैं यह बात कैसे भूल गया ? अपने इस अपराध के लिए मैं आपसे हृदय से क्षमा मांगता हूं ।
द्वितीय, प्रकृति के चक्र, सूरज की तेज धूप, आंधी-तूफान, तेज बारिश व ओलावृष्टि की जो गलत धारणा मैंने अपने दिमाग में बना रखी थी उसके लिए मैं आपसे क्षमा-प्रार्थना करता हूं। जिस प्रकृति के चक्र को मैं प्राकृतिक आपदा कहकर पुकारता था, वे तो वास्तव में प्राकृतिक आपदा न होकर प्राकृतिक अवसर हैं।
तृतीय, मैं प्रकृति के चक्र की निन्दा करने के लिए आपसे क्षमा मांगता हूॅं। बिना वज़ह मैं सूरज की तेज धूप, आंधी-तूफान, तेज बारिश व ओलावृष्टि को अपनी फसल का दुश्मन कहकर कौसता रहा। जबकि वो तो हमारी फसल के पोषण का एकमात्र पर्याय हैं। हे प्रभु! अब आप की कृपा से मेरी आंखों से अपने स्वार्थ व लालच का पर्दा हट चुका है। अब मैं प्रकृति के चक्र की वज़ह और उसके पीछे की उद्धारता को समझ चुका हूं।हे ईश्वर! मेरी मूर्खता भरे कार्य के लिए मुझे क्षमा कर दें। ऐसा कहकर साहूकार फूट-फूट कर रोने लगा और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा- हे ईश्वर! कृपया प्रकृति के चक्र को वैसा ही कठोर, अनिश्चित और अनियन्त्रित कर दो जैसा कि वो पहले था। क्योंकि पहले वाला प्रकृति-चक्र ही मानव जाति के लिए लाभदायक व कल्याणकारी है ।
भगवानः रोना बन्द करो और अपने आंसू पोंछ लो वत्स्! एक बात तुम अपने दिल और दिमाग में सुनिश्चित कर लो कि प्रकृति का चक्र पृथ्वी पर उपस्थित किसी भी जीव के लिए कभी भी हानिकारक हो ही नही सकता। प्रकृति का चक्र तो हर जीव की भलाई के दृष्टिकोण से ही बनाया गया है न कि किसी भी जीव के लिए मुश्किले पैदा करने के लिए। प्रकृति का चक्र सदियों से जीव-सहयोगी रहा है न कि जीव-विरोधी । जब ये प्रकृति चक्र जीव-विराधी नही है तो ये किसी भी जीव के लिए हानिकारक कैसे हो सकता है ? और जहां तक प्रकृति चक्र की कठोरता की बात है, तो कठोरता भी सम्पूर्ण मानवजाति व पृथ्वी पर उपस्थित अन्य जीव की खुशहाली, उत्थान, व कल्याण के लिए ही है। प्रकृति के चक्र की कठोरता पृथ्वी पर उपस्थित हर जीव की इम्युनिटी को मज़बूती प्रदान करने के लिए ही तो है ।
वत्स! अब चिन्ता का त्याग करके दिल को हल्का कर लो और अपने काम पर वापस लग जाओ। सृष्टि का यह नियम सदैव याद रखो-
किसी भी कार्य में बिना परिणाम के सोचे सदैव आप अपना श्रेष्ठ देते जाइये। बाकि सब मुझ पर छोड़ दो। निःसन्देह, मैं आपके श्रेष्ठ को सर्वश्रेष्ठ में बदलकर ही आपको लोटाऊंगा ।ऐसा कहकर भगवान अदृश्य हो गये।
भगवान के द्वारा क्षमा कर दिये जाने पर साहूकार बहुत ही हल्का व सुकुन महसूस कर रहा था। उसके मस्तिष्क की समस्त समस्याऐं व उलझने समाप्त हो चुकी थी और उसका हृदय संतुष्ठ था। अब वो पहले से ज़्यादा खुश था।
यदि हम उक्त भगवान व साहूकार के वार्तालाप पर एक नज़र डाले व इस पूरे वार्तालाप का सार संक्षेप में समझे तो हमें निम्न बिन्दु अवश्य समझ आयेगेंः-
ये संसार जैसा है, अपने आप में सर्वश्रेष्ठ है। आपको इसमे फेर-बदल करने की ज़रूरत नही है। आपको स्वयं का इसके अनुसार तालमेल करना है ।
कोई भी प्राकृतिक गतिविधि किसी भी जीव के लिए कभी भी हानिकारक हो ही नही सकती । इस संसार में बेवज़ह कुछ भी नही है। प्रकृति की हर घटना के पीछे कोई न कोई अच्छाई अवश्य छिपी होती है।
हमें प्राकृतिक संभावनाओं व घटनाओं से अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश नही करनी चाहिये।
जिन्दगी में हमें शोर्ट-कट्स नही अपनाने चाहिये। ईश्वर की सर्वव्यापी सोच हमारी छोटी व संकुचित सोच से कही ज़्यादा अच्छी, लाभकारी व कल्याणकारी होती है। जीवन में प्रकृति जो दे रही है, जैसा दे रही है, वैसा ही स्वीकार करना चाहिये। अपनी सुविधानुसार हालातो को बदलने की कोशिश नही करनी चाहिये। प्रकृति या प्रकृति की किसी भी घटना पर नियन्त्रण वाली सोच, सर्वदा व्यर्थ ही होती है । ऐसी कल्पना भी नही करनी चाहिये। किसी भी कार्य योजना में बेहतर नतीज़े प्राप्त करने के लिए हमें अपने अन्दर बदलाव करने की आवश्यकता होती है न कि प्राकृतिक घटनाओं या अन्य व्यक्तियों में परिवर्तन करने की। हर समय, किसी भी स्थिति में हमें बिना परिणाम सोचे हमें अपना श्रेष्ठ देना चाहिये। बाकी सब विधाता पर छोड़ देना चाहिये । कोई भी कार्य यदि आपसे अधूरा रह जाये तो उसके लिए आपको संताप नही करना चाहिये और न ही परेशान होना चाहिये। क्योंकि ईश्वर श्रेष्ठ को सर्वश्रेष्ठ में बदलने के लिए अपना कार्य उसी बिन्दु से ही प्रारम्भ करता है, जहा से आपका छूटा था।
हमें ‘सत्य‘ और ‘तथ्य‘ का सामना करने की आदत डालनी चाहिये। ऐसा करने से ही हम अपने अन्दर के भय को समाप्त कर सकते हैं और इस पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।